Sunday 29 December 2013

उत्तर

पिछले प्रकरण में हमने प्रश्नो पर चर्चा करी थी, और फल स्वरूप मुझे कई प्रश्नो कि वर्षा से गुजरना पड़ा।
जहां ज्यादातर प्रश्नो के उत्तर मैंने e-mail द्वारा  दे दिए हैं, कुछ प्रश्नो के  उत्तर में यहा देना चाहूंगा।
और हाँ कृपया अपने प्रश्न मुझे e-mail द्वारा न भेजकर  निचे comment करें ताकि सब उसका लाभ उठा सके

१) It's a really good blog but google translation is not working well can you please write the posts in english(or translate them)so that those who can't understand hindi properly can understand the posts(-Akhilesh Jain )

Actually when I started the blog it was ment to be in english only that's why the name"Inner circle" but the thing is that I m not very good in english and also writting the blog in english makes problem to a lot of others who would rather read hindi for indian mythology. I m still Considering to translate in english and that's why I m Searching for Someone who will do it. If You would like to help then Plz send me a mail at Sanchit.dr.Bhandari@gmail.com

Also as soon as we achieve 2000 page view or 50 followers I would start posting chapters of "Essence of Bible-The Gods Love" and that will be in english

२)बहुत अच्छा लिखा है, पर इस बात का ज़िकर नहीं है कि जो व्यक्ति हमारे भीतर छिपा है उसे हम कैसे प्राप्त करें ?(Dr Veena Sharma)

 दरअसल इस प्रश्न का उत्तर बहुत ही मुश्किल है और एक बार में इसे समझ जाना लगभग न मुमकिन परन्तु में आशा करता हूँ कि जब तक में अपने द्वारा रचित 45 अध्याय ख़तम करूँगा आप इस का अर्थ समझ जायेंगे


३) बकवास  समय बर्बाद करने वाली बात है आखिर क्यूँ कोई संस्कृति को जाने ये सिर्फ लोगो को बेवकूफ बनाने के लिए है हिन्दू सब्यता है ही ……  मुझे ये बताओ कि जिस राम ने अग्नि परीक्षा के बाद भी सीता तो त्याग दियो वो महान कैसे ?(Annonymus)

इस mail  में कई ऐसे शब्द थे, जो में यहा नहीं लिख सकता।  फिर भी मैंने सोचा कि इसका जवाब देना जरूरी हैं।
सर्व प्रथम तो में ये कहना चाहूंगा कि यदि आपको लगता हैं कि संस्कृति बेकार कि चीज़ है तो आप ने क्यूँ मेरा blog पढ़ा और क्यूँ मुझे mail भेजा ?ऐसा करके अपने ये साबित कर दिया कि आप भी मानते हैं कि जीवन कि समस्यायों का हल केवल संकृति द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।  परन्तु आप उसे समझ नहीं पा रहे और इसी लिए क्रोध कर रहे हैं।  आपने प्रभु श्री राम के विषय में जो प्रशन किया है वो उत्तम है और इसका उत्तर आपको 4  अध्याय "धरम: संकट और पालन " में मिलेगा परन्तु साथ में यह भी याद रखें कि श्री राम कि आराधना ही संस्कृति नहीं। हैं क्यूंकि भारतीये संकृति आत्मा और परमात्मा पर निर्भर हैं जिसका विश्लेषण  रामचरित्र मानस में सगुन और निर्गुण ईश्वर के  रूप में तुलसीदास जी ने किया है।  ये चर्चा 4  अध्याय के लिए है

४ )में इस blog  को follow करती हूँ पर अभी तक इस पे बहुत  ही कम post हैं और काफी समय से कोई पोस्ट भी नहीं ऐसा क्यूँ हैं?(-Pooja Naik)

यह प्रश्न मुझे कल मिला और मैंने सोचा कि हाँ बात तो सही है।  दरअसल ये Blog उन 45 अद्याय पर आधारित हैं जो मेरी dairy में दर्ज हैं पर समय के आभाव के कारन में उन्हें Internet  पर छोड़ नहीं पा रहा . ज्यादातर बातें आप ज़िंदगी से प्रभावित है और सबसे बड़ा योगदान T.V Show उपनिषद गंगा का हैं  . कम लिखने कि एक वजह ये भी हैं कि मुझे लगता था, इन्हें कोई पढता नहीं हैं पर पिछले अध्याय के बाद आए 67 mail  नै मुझे गलत साबित कर दिया , अब में प्रयास करूँगा कि हर हफ्ते एक पोस्ट जरूर लिखूं

५) यदि ईश्वर नें हमें रचा ह तो उसने हमें इतने दुःख क्यूँ दिए?

यह प्रशन एक चर्चा के समय, मुझे एक करीबी  नें पूछा था और इसका उत्तर ही हमारे अगले अध्याय का मूल हैं जिसका नाम हैं आनंद स्वरूप  जो कि में आज अन्यथा अगले रविवार को अवश्य Post कर दूंगा .

Tuesday 29 October 2013

भाग 2 : प्रशन

Bhagvad-gita
भग्वद गीता,दरअसल एक कहानी है, यह कहानी किसी राजा ,महाराजा या अवतार की नहीं परन्तु मानव जाती की है यह कहानी हमारी है ,आपकी है ,मेरी है.। 
आप कह सकते है की आप अपनी कहानी जानते है,पर क्या आप अपनी कहानी जानते हैं ?  तो बताइए कौन है आप ? क्या है आपके जीवन का उद्देश्य ?
उपनिषद ,उपनिषद  स्वयं को जानने और पहचानने की एक प्रक्रिया है,क्या आप जानते है की आपके  भीतर एक और व्यक्ति छिपा हुआ है जो आपको  दिखाई नहीं देता ? पर वो हर वक़्त, हर पल खुद को अभिव्यक्त करने के लिए लड़ रहा है ,वो सारे  बन्धनों को तोड़ने के लिए लड़ रहा है, वो शांति के लिए लड़ रहा है , वो आनंद की प्राप्ति के लिए लड़ रहा है।
 क्यूँ एक पुत्र या पुत्री कभी पिता के खिलाफ, कभी परिवार के खिलाफ,कभी समाज के खिलाफ  विद्रोह करता है ? क्या है जो उनसे ये विद्रोह कराता  है ? क्यूँ है असंतोष? क्यूँ है विद्रोह?. वो सुखी होना चहाता है ,पर क्या उसने सुख को पा लिया ? क्यूँ आदमी समुन्द्र की गहराइयों को ,सुरज और चाँद की ऊँचाइयों को मापना चहाता है ?,तो क्यूँ वो पर्वत के शिखर को जितना चहाता है ? क्यूँ वो संसार की सारी  सीमाओ को तोड़ देना चहाता है ? क्या वो जानता है की वो असिमित है? क्यूँ वो मृत्यु पर विजय प्राप्त करना चहाता है ? क्या वह जानता है की वह अमर है ?
सिमित से असिमित ,मरण से अमरत्व की यात्रा पर हम सब जा रहे  है ,परन्तु देख नहीं पा रहे इसी लिए उपनिषद हमे बुलाते है और कहते   है।
"उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।"(कठोपनिषद  1.3.14)
उठो जागो और सत्य को  पहचानो ,वह छुरे की धार जैसा पेना ,मुश्किल से मिलने वाला ,और बहुत ही कठिन पथ है एसा संत लोग कहते है ।

यह जीवन सर्वदा प्रशनों से ही भरा रहा है जिनके उत्तर कोई नहीं जानना चहाता ,क्यूंकि यह प्रशन सांसारिक मोह से परे है और व्यक्ति इसी मोह से छुटना नहीं चहाता। एसे  ही प्रशनो के बिच कुरुक्षेत्र में अर्जुन खड़ा है

दूर-दूर तक फैली विराट सेनांए समस्त भारतवर्ष के वीर और इन सब के बीच एक वक्ता और एक श्रोता और समस्त संसार का ज्ञान जो एक वक्ता ने एक श्रोता को दिया। परन्तु केवल एक श्रोता को क्यूँ ?इतने वीरो के बीच कृष्ण ने अर्जुन को ही क्यूँ चुना ?क्या था वह जिसने औरों को अर्जुन से अलग किया? जिसने संसार का समस्त ज्ञान अर्जुन की  झोली में डाल दिया ? वह केवल एक प्रशन था । संसार का समस्त ज्ञान एक वक्ता ने एक श्रोता को दिया उसे जिसके मन में प्रशन था न की उन्हें जो युद्ध भूमि में किसी की जय और किसी की पराजय की आशा लिए खड़े थे ।
तो क्या था वह प्रशन ?
धर्मक्षेत्र में अर्जुन ने जब सब और केवल अपने बन्धुओ को देखा तो उसके मन में प्रशन उठने लगे और वह पूछ बेठा
अर्जुन -हे कृष्ण ! युद्ध ही अभिलाषा से मेरे सामने खड़े में अपने ही भाइयो, बांधवों और गुरुजनों को कैसे मारू ? हे कृष्ण ! न तो में विजय चहाता हूँ,न राज्य, न ही सुख।  अपने ही लोगो को मार कर मैं  सुखी कैसे हो सकता हूँ  वासुदेव? हे कृष्ण ! बुद्धिमान होकर भी हम लाभ और सुख के लिए अपने ही लोगो को मारने के लिए कैसे तैयार हो गए ?
कृष्ण - हे अर्जुन ! तू शोक न करने लायक लोगो के लिए शोक करता है और बुधिमानो जैसी बात करता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए या जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी बुद्धिमान शोक नहीं करते। न हो एसा ही है की मैं  किसी काल में न था, या तू नहीं था, या युद्ध की अभिलाषा से खड़े ये लोग नहीं थे । हे अर्जुन ! ये आत्मा कभी नहीं मरता।क्यूंकि आत्मा न किसी को मारता है न किसी से मरता है ,ये न कभी जन्म लेता है न कभी मृत्यु को प्राप्त होता है। क्यूंकि ये अजन्मा, नित्य,सनातन और पुरातन है । जैसे मानुष पुराने वस्त्र को त्याग नए वस्त्र को ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुराने शारीर को त्याग कर नए शारीर को धारण करती है । इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते ,आग जला नहीं सकता ,जल गला नहीं सकता ,वायु सुखा नहीं सकता । 
अर्जुन - हे  कृष्ण ! यह ब्रहम क्या है ?
कृष्ण - अहम ब्रह्मा अस्मि ।
श्री कृष्ण के यह शब्द "अहम ब्रह्मा अस्मि " ही गीता का सरल व सर्वोपरी ज्ञान है । यहाँ "मै" का अर्थ श्री कृष्ण नहीं बल्कि  जीवात्मा है ।
 मै ब्रहम हूँ ,तुम ब्रह्म हो, हम सब ब्रह्म हैं। वो एक है, वो निराकार, वो सर्वशक्तिमान है ,वो अपनी इच्छा से अपने को असंख्य रूप में अभिव्यक्त करता है।


वो ही सूर्य है, वो ही वर्षा है ,वो ही अमृत है, वो ही मृत्यु, वो ही सत्य, वो ही असत्य भी है। उसी से सब जन्म लेते हैं उसी के द्वारा सब जीते हैं , और उसी में सब विलीन होते हैं, सभी भूतों में स्थित वह जीवात्मा, मैं  ही हूँ में सूक्ष्म से सूक्ष्म और विराट से विराट हूँ। मैं  ही समुद्र हूँ, में ही पर्वत, मैं  ही वृक्ष हूँ, मैं  ही काम, में ही शास्त्र ,मैं ही पशु,मैं ही जंतु ,मैं ही जीवन, मैं ही यम हूँ और में ही अद्भुत विसमयकारी ब्रह्मांड हूँ। सृष्टि का अदि मैं  हूँ और अन्त भी मैं ही हूँ। 
जिस ईश्वर कि खोज व्यक्ति ता जीवन करता है वह उसके भीतर ही है।  जिस तरह मस्क (हीरन ) ता जीवन उस सुगंध कि तलाश  करता है जो उसकी नाभि से उत्पन होती है, उसी प्रकार मनुष्य ता जीवन स्वयं कि खोज में बिता देता है


 पुषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य
व्यूह रश्मीन समूहतेजः। 
यत्ते रूपं कल्यारातमं तत्ते 
पस्यामि योअसावसौ पुरुषः सोअहमस्मि।। (Isavayopnishad ,16)
हे जगत पोषक सूर्य तू अपनी  किरणो को हटा ले, अपने तेज को समेट ले, तेरा जो अतिश्य कल्याणमय रूप है उसे में देखता हूँ यह जो पुरुष है वो मैं हूँ।
 
 

Saturday 3 August 2013

GURU: THE TEACHER

AVADHUTA DATTATREYA (Bhagavata Mahapurana,11.7)


गुरु, जीवन बीत जाता है उस गुरु की तलाश में जो हमारा मार्गदर्शन कर सके। जो ब्रह्मा हो जो विष्णु हो और जो महेश भी हो आखिर कौन है वो गुरु जिसकी हमें तलाश कौन है वह जिसके लिए वेद चीख -चिख कर बखान करते है की 
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु : गुरुर्देवो महेश्वर: ।
गुरु : साक्षत्पराम्ब्रह्मा तस्मे श्री गुरुवेनमः।। 
गुरु की सर्वश्रेष्ठ व्हाख्या स्कंध्पुरान  गुरुगीता में है।
गुकाराश्वान्धकारो हि रुकारस्तेज उज्यते। 
आज्ञानग्रासकं ब्रह्मा   गुरुरित्यभिधीयते।।

 'गु:' अर्थात अंधकार 'रु:' अर्थात नाश करने वाला इसलिए जो अंधकार का नाश करता है  वह ही गुरु है। 

गुरुर्ब्रह्मा (ब्र= अखंड ब्रह्माण्ड ह्मा= उत्पत्ति ) गुरुर्विष्णु:(विष्व = समस्त संसार अनु = भोजन ) महेश्वर:(मह:=विनाश एश=स्वामी)
इस संसार की उत्तपत्ति पालन था विनाश में ही गुरु अर्थात अज्ञान रूपी अंधकार के नाश करने वाले ज्ञान का वास है। एसा ज्ञान जो स्वयं में ही साक्षात् परमात्मा है और उसी ज्ञान को मेरा नमस्कार है। 
अपने गुरु की तलश में  समस्त संसार में घूमता रहता है परन्तु वह यह नहीं जनता की सत्य जानने की इच्छा रखने वालो के लिए तो समस्त संसार ही गुरु है 'विश्वम गुरुर मम ' जैसे अवधूत दत्तात्रेय के २४ गुरु।
जीवन की पाठशाला में जिससे भी कुछ सिखा व्ही गुरु होता है, जो अज्ञान के अंधकार को दूर करे व्ही गुरु है। जो आत्म ज्ञान  दे वह गुरु भी व्यक्ति को अपने जीवन मैं अनेक ही मिलते है। 
यदि व्यक्ति स्वयं को शिष्य माने और समस्त संसार को पाठशाला तो इस संसार की समस्त घटनाये ही उसके गुरु वचन तथा गुरु मंत्र है। इसका वहुत ही अच्छा उद्धरण हल ही की एक movie slum dog milliner में देखने को मिला जिसमें एक अनपद व्यक्ति अपने जीवन में हुई घटनाओ से उस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है जो बड़े बड़े पढ़े लिखे लोग भी नहीं जानते। 
इसी प्रकार भागवत महापुराण ने दत्तात्रेय के २४ गुरु के बारे में बताया है। 
  1. धरती: यह धरती सभी को धारण करती है सबको समान रूप से अधर करती जाती या धर्म को देखकर अपना व्ह्व्हार नहीं बदलती इसी प्रकार व्यक्ति को समस्त संसार में मोजूद सभी व्यक्ति था जिव जन्तुओ को सामान भाव से ही देखना चाहिए तभी वह पूर्ण रूप से धरम अथवा अधर्म का भेद कर धर्म का पालन कर सकता। जेसे लंका युद्ध के समाया विभीषण ने इस संसार में मोजूद सभी व्यक्ति को अपने भाई सामान माना और इसी लिए वह धरम का पालन करते हुए श्री राम की सेना पर जा मिले, परन्तु कुम्भकरण ने अपने भाई का साथ ना छोड़ा क्यूंकि अपने राज्य की रक्षा करना हर व्यक्ति का धरम है। 
  2. वायु : वायु सर्वदा हर चीज़ से अप्रवाहित रह एक समान ही विचरण करती  है। उसी प्रकार साधक को भी अच्छे और बुरे से अप्रवाहित रह अपने स्वभाव अनुसार ही विचरण करना चाहिए। उसने मेरे साथ अच्छा किया, या उसने मेरे साथ बुरा किया, या उसने मेरे लिए क्या किया ?इन सब सवालों को दर्किनारे कर साधक को यह सोचना चाहिए की उसे क्या करना है उसका स्वभाव उसके व्हाव्हार के अनुकूल होना चाहिए न की किसी और के व्हाव्हार के अनुकूल। किसी और के व्हाव्हार के कारण अपना स्वभाव ना बदले जिस प्रकार बिच्छु के बार बार काठने पर भी महर्षि अगस्त ने उसे बचाने का प्रयास न छोड़ा,क्यूंकि उनका स्वभाव उनके अधीन था बबिच्छू के नहीं। जिस प्रकार बिच्छु बचाने पर अपना प्रभाव नहीं छोड़ रहा था उसी प्रकार ऋषि अगस्त भी बार बार शती पहुँचने पर अपना स्वभाव नहीं छोड़ रहे थे।  
  3. आकाश :जिस प्रकार आकाश सर्वव्यापी है। उसी प्रकार आत्मा भी निराकार, निरंकुश है उसका न कोई रूप है न कोई रंग ,आत्मा सर्वोपरी है , वह अनंत है अनादी है जिसका कोई छोर नहीं है। वह सभी चीजो से अप्रवाहित रह अपने ही रूप में विचरता है। 
  4. अग्नि: जिस प्रकार अग्नि हर आहार को ग्रहण करती है , हर समिधा ग्रहण करती है और उसे भस्म कर के पवित्र कर देती है, उसी प्रकार ब्रह्म चिंतक को भोजन की चिंता छोड़ कर हर प्रकार का भोजन ग्रहण करने को तत्पर रहना चाहिए क्यूंकि भोजन भोतिक सुखो का साधन नहीं अथवा शारीर का पालक है , भोजन केवल पोषण के लिए ही करना चाहिए उसके खाद्य सुख के लिए नहीं। यहाँ चिंतनीय बात यह है की शरीर का पालन करना भी साधक का धर्म है, क्यूंकि यह शरीर इस आत्मा का वह साथी है जो उसे इस संसार से जोड़ता है ,एसे में इस शारीर को उसके पोषण से विहीन करके इश्वर की कामना करना उसी प्रकार है जैसे किसी buissness में अपने partner को उसका मेहेंताना न देके उससे सभी प्रकार का काम लेने की सोचना एसा  व्हाक्ति सर्वदा यही सोचता है की समस्त व्रत उपवास के बाद भी उसे इश्वर क्यों नहीं मिलते। महात्मा बुध ने भी कई वर्षो  इश्वर की कामना में व्रत किया और जबएउनका शारीर एक तिनके के बहती रह गया तब एक स्त्री ने गलती से उन्हें मूर्ति समझ के  उनके मुख में चावल का एक दाना डाल दिया जिसके प्राप्त  उनको इस बात का एहसास हुआ की वः एक नहीं बाल्टी दो है अपनी आत्मा को तो वह  जप का भोजन दे रहे है परन्तु अपने दुसरे रूप शारीर पर वह अत्याचार कर रहे है और उन्होंने खा "जो व्यक्ति इश्वर की कामना में अपने शारीर पर अत्याचार करता है च सपने में भी इश्वर को नहीं प्राप्त कर सकता ,अपने शारीर से नफरत कर कोई इश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। 
  5. सूर्य: जिस प्रकार सूर्य की छाया विभिन पत्रों के जल में भिन्न  दिखाई देती है, उसी प्रकार यह समस्त संसार एक ही आत्मा की भिन्न छाया है। 
  6. कबुतर: एक शिकारी के जाल में कबूतर के बच्चे फस गये यह देखकर उनकी माँ तड़प उठी और उन्हें  बचाने चल पढ़ी और खुद भी फस गई। इसी प्रकार मानुष भी अपने मोह के बन्धनों द्वारा विनाश को प्राप्त होता है , सुख की कामना और इश्वर की चाह रखने वाले व्यक्ति को इस बात का ज्ञान आवशक है  की यह समस्त संसार इश्वर द्वारा रचा गया है इसलिए वह ही इसका पालक  है ,इसीलिए इस संसार में मोजूद हर जिव का पालन करना उसी का धरम है हमारा नहीं जिसने जनम दिया है भोजन भी वाही देगा , चिंता भी वाही लेगा। 
  7. अजगर : जिस प्रकार अजगर भोजन की तलाश में इधर उधर नहीं भटकता उसी प्रकार ज्ञान की   अभिलाषा रखने वाले व्यक्ति को सुख के लिए इधर उधर नहीं भटकना चाहिए। क्यूंकि सुख केवल संतुष्ठी से ही प्राप्त हो सकता है। 
  8. समुद्र : समुद्र  अचल है,शक्तिशाली है, फिर भी अपनी मर्यादा का पालन करता है इसी बुद्धिमान व्हाक्ति अपनी नेतिक मर्यादाओ का उलंघन नहीं करता।
  9. पतंगा : मुर्ख व्यक्ति पतंगे की ही भांति अपनी इन्द्रियों के वशिबुत हो स्वयं का नाश कर लेता है परन्तु बुद्धिमान व्यक्ति अपने इन्द्रियों के गुणों और दोषों को समझता है और उनके इन्ही गुणों और दोषों को अपने फायदे के लिए इस्तमाल करता है। इन्द्रियों को सदा दोषी मान कर उन पर  पूर्ण रूप से अनकुश लगाना भी व्यक्ति के पतन का कारन बनता है क्यूंकि इन्द्रियां इस शरीर रुपी रथ के घोड़े है जिसका आत्मा रथी है इन्द्रियों पर अंकुश इस रथ की गति को रोक देता है और आत्मा का चलन बंद हो जाता है। व्यकती को एक समझदार मालिक की तरह अपने घोड़ो पर काबू करना चाहिए उन्हें मरना नहीं चहिये। 
  10. गज (हाथी ) :  हाथी को पकड़ने के लिए जिस प्रकार शिकारी पालतू हथनी या नकली हथनी का प्रयोग करता है , उसी प्रकार माया रुपी शिकारी आत्मा रुपी शिकार को पकड़ने के लिए काम रुपी जाल का प्रयोग करती है ,इसलिए साधक को काम से बचकर रहना चाहिए। यहाँ काम से बचना उसका पूर्ण तरह से तिरस्कार नहीं परन्तु आत्म नियंत्रण है क्यूंकि यही काम इस संसार का रचेता भी है और पालक भी इसलिए काम का प्रयोग आत्म सुख के लिए नहीं परन्तु इस संसार के पालन के लिए ही होना चाहिये।
  11.  मधुआ : मधुमक्खी अपना जीवन शहद एकट्ठा  करने में व्यर्थ करती है ,और उसका उपभोग शहद एकट्ठा करने वाला मधुआ करता है ,इसी प्रकार व्यक्ति भी साधन एकत्रित करने में अपना समय नष्ट करता है ,जबकि यह समय उसे साधन एकत्रित  करने में नहीं बल्कि स्वयं को समझने में बिताना चाहिए।
  12.  मछली : जिस प्रकार मछली कांटे में लगे पदार्थ के कारण कांटे में फस जाती है उसी प्रकार मनुष भी प्रलोभनों के कारण ही संकट में पड़ता है। जो प्रलोभनों से विचलित न हो अपने संसार में संतुष्ट रहे वही व्यक्ति सुखी रह सकता है। 
  13. गणिका पिंघला :अपने वैराग्य से आचार्य स्तुलिभद्र को जगाने वाली इस गणिका की कहानी सब जानते है, एक दिन वह बेसब्री से एक ग्राहक का इंतजार कर रही थी इस उम्मीद में की वह उसे काफी धन देगा,और काम का सुख भी ,जब बहुत देर इंतजार के बाद भी वो नहीं आया तो अंत में उसने कहा  "मेरी इस दशा का कारण में स्वयं हूँ। सुख की कामना की आग मुझे जला रही है ,और में स्वयं  को राख होते देख नहीं पा  रही हूँ ,काम की आग मुझे हर दिन जलती है और में स्वयं  को जलने देती हूँ, टुकड़े-टुकड़े सुख के लिए हर दिन मरती हूँ। धिक्कार है मुझे कुछ पल का योग, फिर वयोग ,इससे तो अच्छा होता। में उसकी कामना करती जिससे योग के बाद कभी वियोग नहीं होता।धिक्कार है मुझे जो में उसकी प्रतीक्षा कर रही हूँ जो सिर्फ मेरे शारीर को चाहता है ,यदि इतने ही भावो के साथ ,मेने उसे प्रेम किया होता उसकी प्रतीक्षा करी होती, तो वो भी मुझे मिल जाता जिसे लोग इश्वर कहते है। नहीं चाहिए नहीं चाहिए मुझे वो सुख जो शनिक है। 
  14. तीर बनाने वाला : जिससे यह शिक्षा मिली की आत्मा पर एकाग्रता से ध्यान लगा ही संसार के समस्त प्रपंच को अनदेखा किया जा सकता है, अर्थात यदि व्यक्ति पूर्ण रूप से, एक चित हो आत्म ज्ञान की और ध्यान दे तो कोई भी सांसारिक दुःख उसे व्यथित नहीं कर सकता।   
  15. छोटे बच्चे : छोटे  बच्चे मान-सम्मान मेरा तेरा इन सब से परे रहते है। इसी प्रकार साधक का निरादर कभी हो ही नहीं सकता क्यूंकि वह आदर से परे ह ,अपने सम्मान का अहंकार ही इस संसार में दुःख का कारन है , साधक इस संसार के सभी अच्छे और बुरे व्यव्हार को देखता है और उनसे सीखता है उनसे प्रभावित   हो वह न तो क्रोधित होता है न ही खुश ,अपनी बड़ाई सुन कर खुश होना और किसी  भी कार्ण वश क्रोधित होना इस बात का प्रतिक है की उसकी साधना में कमी है। लक्ष्मण द्वारा ये पूछने पर की इस संसार में कौन सुखी है श्री राम ने यही उत्तर दिया था "इस संसार में कोई सुखी नहीं क्यूंकि दुःख बिना सुख का एहसास असंभव है ,परन्तु हे लक्ष्मण तुम सुनो जिसके लिए आदर निरादर सामान हो, जिसका न कोई मित्र है न शत्रु ,जो सबको समान भाव से देखता है, जिसे न सुख की कामना है न दुःख का गम ,जिसके लिए उसका धरम और करम ही सर्वश्रेष्ट है वाही व्यक्ति सुखी है "  ।
  16.  चन्द्रमा : जिस प्रकार चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश को ही प्रवर्तित करता है उसी प्रकार यह जिव आत्मा भी एक ही परमात्मा के प्रकाश का हिस्सा है। 
  17. मधुमक्खी : जेसे मधुमक्खी फूलो को नुकसान पहुचाए बिना उनसे रस निकलती है ,उसी प्रकार व्यक्ति को इस संसार के कण कण से ज्ञान का रस निकालना चाहिए। 
  18.  मृग : इन्द्रियों की कामना दास्ता का कारण होती है। 
  19. बाज : जिस प्रकार कई शिकारी पक्षी मास के एक टुकड़े के लिए झपट पड़ते है और परसपर लड़ते है उसी प्रकार भोतिक सुखो की होड़ संघर्ष आमंत्रित करती है। व्यक्ति को इसी संघर्ष से बचना चाहिए क्यूंकि कितनी भी मात्रा में भोतिक सुख कभी भी पर्याप्त नहीं होते। 
  20. कन्या : एक बार एक कन्या के घर कुछ मेहमान आये और वह धान कूटने लगी ,धान कूटने से उसकी चुडिया बजने लगी और उनकी आवाज से मेहमानों को कोई तकलीफ न हो इसलिए उसने अपनी चुडीयाँ उतार के रख दी। इससे पता चलता है की दुसरो के होने से स्वर खटकने लगते है इसलिए साधक को अकेले रहना चाहिए (अर्थात दुसरो की मोजुदगी में व्यक्ति पूर्ण तरह से स्वयं का आभास नहीं करता क्यूंकि दुसरो की चिंता उसे सर्वदा सताती है ) ।
  21. सर्प :सर्प घर नहीं बनाता वेसे ही अध्यात्म के पथिक को अनिकेत रहना चाहिये ,क्यूंकि निकेत व्यक्ति एक जगह बस जाता है जो उसकी विद्या की रूकावट है। 
  22. मकड़ी : जेसे मकड़ी अपने जाल की रचना करती है उसमे विचरण करती है और अंत में उसे ही निगल लेती है उसी प्रकार आत्मा अपने संसार की रचना कर उसमें वास करता है और अंत में यह संसार उसी में विलीन हो जाता है।
  23. इल्ली (catterpillar ):इल्ली निरंतर भोरे की और ही ध्यान लगाती है और एक दिन स्वयं भोरा ही बन जाती है ,इसीप्रकार एक शिष्य को सर्वदा एकाग्रमन से अपने गुरु पर ही ध्यान लगाना चाहिए 
  24. जल : जल सबकी प्यास बुझाता है ,किन्तू सर्वदा सबसे निचले स्थान पर रहता है इसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति को समस्त संसार की सेवा कर सबसे नीच स्थान ही ग्रेहन करना चाहिए ,क्यूंकि उसके द्वारा यदि उचा  स्थान लिया जायेगा तो कोई और निचले स्थान पर रहे गा और साधक जिसके लिए संसार ही गुरु है अपने गुरु से ऊँचा स्थान प्राप्त करना उसे शोभा नहीं देता।