Tuesday, 29 October 2013

भाग 2 : प्रशन

Bhagvad-gita
भग्वद गीता,दरअसल एक कहानी है, यह कहानी किसी राजा ,महाराजा या अवतार की नहीं परन्तु मानव जाती की है यह कहानी हमारी है ,आपकी है ,मेरी है.। 
आप कह सकते है की आप अपनी कहानी जानते है,पर क्या आप अपनी कहानी जानते हैं ?  तो बताइए कौन है आप ? क्या है आपके जीवन का उद्देश्य ?
उपनिषद ,उपनिषद  स्वयं को जानने और पहचानने की एक प्रक्रिया है,क्या आप जानते है की आपके  भीतर एक और व्यक्ति छिपा हुआ है जो आपको  दिखाई नहीं देता ? पर वो हर वक़्त, हर पल खुद को अभिव्यक्त करने के लिए लड़ रहा है ,वो सारे  बन्धनों को तोड़ने के लिए लड़ रहा है, वो शांति के लिए लड़ रहा है , वो आनंद की प्राप्ति के लिए लड़ रहा है।
 क्यूँ एक पुत्र या पुत्री कभी पिता के खिलाफ, कभी परिवार के खिलाफ,कभी समाज के खिलाफ  विद्रोह करता है ? क्या है जो उनसे ये विद्रोह कराता  है ? क्यूँ है असंतोष? क्यूँ है विद्रोह?. वो सुखी होना चहाता है ,पर क्या उसने सुख को पा लिया ? क्यूँ आदमी समुन्द्र की गहराइयों को ,सुरज और चाँद की ऊँचाइयों को मापना चहाता है ?,तो क्यूँ वो पर्वत के शिखर को जितना चहाता है ? क्यूँ वो संसार की सारी  सीमाओ को तोड़ देना चहाता है ? क्या वो जानता है की वो असिमित है? क्यूँ वो मृत्यु पर विजय प्राप्त करना चहाता है ? क्या वह जानता है की वह अमर है ?
सिमित से असिमित ,मरण से अमरत्व की यात्रा पर हम सब जा रहे  है ,परन्तु देख नहीं पा रहे इसी लिए उपनिषद हमे बुलाते है और कहते   है।
"उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।"(कठोपनिषद  1.3.14)
उठो जागो और सत्य को  पहचानो ,वह छुरे की धार जैसा पेना ,मुश्किल से मिलने वाला ,और बहुत ही कठिन पथ है एसा संत लोग कहते है ।

यह जीवन सर्वदा प्रशनों से ही भरा रहा है जिनके उत्तर कोई नहीं जानना चहाता ,क्यूंकि यह प्रशन सांसारिक मोह से परे है और व्यक्ति इसी मोह से छुटना नहीं चहाता। एसे  ही प्रशनो के बिच कुरुक्षेत्र में अर्जुन खड़ा है

दूर-दूर तक फैली विराट सेनांए समस्त भारतवर्ष के वीर और इन सब के बीच एक वक्ता और एक श्रोता और समस्त संसार का ज्ञान जो एक वक्ता ने एक श्रोता को दिया। परन्तु केवल एक श्रोता को क्यूँ ?इतने वीरो के बीच कृष्ण ने अर्जुन को ही क्यूँ चुना ?क्या था वह जिसने औरों को अर्जुन से अलग किया? जिसने संसार का समस्त ज्ञान अर्जुन की  झोली में डाल दिया ? वह केवल एक प्रशन था । संसार का समस्त ज्ञान एक वक्ता ने एक श्रोता को दिया उसे जिसके मन में प्रशन था न की उन्हें जो युद्ध भूमि में किसी की जय और किसी की पराजय की आशा लिए खड़े थे ।
तो क्या था वह प्रशन ?
धर्मक्षेत्र में अर्जुन ने जब सब और केवल अपने बन्धुओ को देखा तो उसके मन में प्रशन उठने लगे और वह पूछ बेठा
अर्जुन -हे कृष्ण ! युद्ध ही अभिलाषा से मेरे सामने खड़े में अपने ही भाइयो, बांधवों और गुरुजनों को कैसे मारू ? हे कृष्ण ! न तो में विजय चहाता हूँ,न राज्य, न ही सुख।  अपने ही लोगो को मार कर मैं  सुखी कैसे हो सकता हूँ  वासुदेव? हे कृष्ण ! बुद्धिमान होकर भी हम लाभ और सुख के लिए अपने ही लोगो को मारने के लिए कैसे तैयार हो गए ?
कृष्ण - हे अर्जुन ! तू शोक न करने लायक लोगो के लिए शोक करता है और बुधिमानो जैसी बात करता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए या जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी बुद्धिमान शोक नहीं करते। न हो एसा ही है की मैं  किसी काल में न था, या तू नहीं था, या युद्ध की अभिलाषा से खड़े ये लोग नहीं थे । हे अर्जुन ! ये आत्मा कभी नहीं मरता।क्यूंकि आत्मा न किसी को मारता है न किसी से मरता है ,ये न कभी जन्म लेता है न कभी मृत्यु को प्राप्त होता है। क्यूंकि ये अजन्मा, नित्य,सनातन और पुरातन है । जैसे मानुष पुराने वस्त्र को त्याग नए वस्त्र को ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुराने शारीर को त्याग कर नए शारीर को धारण करती है । इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते ,आग जला नहीं सकता ,जल गला नहीं सकता ,वायु सुखा नहीं सकता । 
अर्जुन - हे  कृष्ण ! यह ब्रहम क्या है ?
कृष्ण - अहम ब्रह्मा अस्मि ।
श्री कृष्ण के यह शब्द "अहम ब्रह्मा अस्मि " ही गीता का सरल व सर्वोपरी ज्ञान है । यहाँ "मै" का अर्थ श्री कृष्ण नहीं बल्कि  जीवात्मा है ।
 मै ब्रहम हूँ ,तुम ब्रह्म हो, हम सब ब्रह्म हैं। वो एक है, वो निराकार, वो सर्वशक्तिमान है ,वो अपनी इच्छा से अपने को असंख्य रूप में अभिव्यक्त करता है।


वो ही सूर्य है, वो ही वर्षा है ,वो ही अमृत है, वो ही मृत्यु, वो ही सत्य, वो ही असत्य भी है। उसी से सब जन्म लेते हैं उसी के द्वारा सब जीते हैं , और उसी में सब विलीन होते हैं, सभी भूतों में स्थित वह जीवात्मा, मैं  ही हूँ में सूक्ष्म से सूक्ष्म और विराट से विराट हूँ। मैं  ही समुद्र हूँ, में ही पर्वत, मैं  ही वृक्ष हूँ, मैं  ही काम, में ही शास्त्र ,मैं ही पशु,मैं ही जंतु ,मैं ही जीवन, मैं ही यम हूँ और में ही अद्भुत विसमयकारी ब्रह्मांड हूँ। सृष्टि का अदि मैं  हूँ और अन्त भी मैं ही हूँ। 
जिस ईश्वर कि खोज व्यक्ति ता जीवन करता है वह उसके भीतर ही है।  जिस तरह मस्क (हीरन ) ता जीवन उस सुगंध कि तलाश  करता है जो उसकी नाभि से उत्पन होती है, उसी प्रकार मनुष्य ता जीवन स्वयं कि खोज में बिता देता है


 पुषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य
व्यूह रश्मीन समूहतेजः। 
यत्ते रूपं कल्यारातमं तत्ते 
पस्यामि योअसावसौ पुरुषः सोअहमस्मि।। (Isavayopnishad ,16)
हे जगत पोषक सूर्य तू अपनी  किरणो को हटा ले, अपने तेज को समेट ले, तेरा जो अतिश्य कल्याणमय रूप है उसे में देखता हूँ यह जो पुरुष है वो मैं हूँ।